गांडा जाति को आदिवासी में शामिल करने समाजिक कार्यकर्ता हुए सक्रिय

अमरदीप चौहान/अमरखबर:सारंगढ :- छत्तीसगढ़ प्रदेश में गांडा जाति का बहुत बड़ा समुदाय है। इस जाति के लोग भिन्न भिन्न जगहों पर निवासरत हैं। पहाड़ी व मैदानी क्षेत्र में अधिकांश लोग बसे हुए हैं। गांडा जाति परीक्षण प्रतिवेदन 2002 के अध्यक्ष राजेंद्र भोई व सचिव एस टोप्पो के अनुसार गांडा जाति का उलेख 1949 50 में मध्य प्रान्त व बरार सरकार के आगमन विभाग के आदेश क्रम 60/3/300-12 नागपुर दिनांक आदेश 1949 के खड़ 10 में की गई व्यवस्था के अनुसार देखने को मिलता है। गांडा जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया गया है। जो अनुसूची क्रम 38 एवं 39 में उपलब्ध है जिसमे गदबा, गांडा, गड़वा उल्लेख है।

यह जाति प्रदेश के लगभग समस्त जिलों में पाई जाती हैं। यही गांडा जाति मध्यप्रदेश शासन के सामान्य प्रशासन विभाग के क्रम 49 -1907 ह. आ से इन जाति को अनुसूचित जाति की सूची में जारी किया गया जो अनुसूची क्रम 25 में गांडा, गांडी के उल्लेख हैं तथा गडावा,गंडवा को अनुसूचित जनजाति की सूची 15 में शामिल कर दिया गया है तब से गांडा, गांडी को अनुसूचित जाति माना गया है जबकि ये दोनो जातिया 1949 अनुसूचित जनजाति में शामिल थी। गडावा,गडवा, गदबा का समानार्थी शब्द गांडा है। समाजिक कार्यकर्ता गोपाल बाघे ने बताया कि हमारे समाज आज भी आर्थिक तंगी से जूझ रहा है और पिछड़ता जा रहा है। (जन जाति) आदिवासी में शामिल करने की मांग लंबे समय से चल रही हैं जो की अति आवश्यक है। आदिवासी करण के लिए पुरजोर से लडाई लड़ेंगे। जब तक सरकार हमारे जाति को आदिवासी में शामिल नही करेगा तब तक हम अपने मांग व आवाज को बुलंद करते रहेंगे।

इस जाति विषय पर छत्तीसगढ़ के सबेरे अमीर किसान की पहचान रखने वाले शोधकर्ता श्री राजाराम त्रिपाठी जी ने शोध भी किया है और पुस्तक भी लिखी है।
उन्होंने लिखा है की..‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ गांडा समाज पर केन्द्रित पिछले सात सालों के सतत परिश्रम तथा नानाविध बाधाओं को पार कर पूर्ण हुए शोध-प्रबंध की यह प्रथम प्रकाशित पुस्तक खुलासा करती है उस महान गौरवशाली, योद्धा, गायन वादन सहित सर्वकला संपन्न, परंपरागत चिकित्सक गांडा समाज का जिसके मानवता के ऊपर अनेकों अविस्मरणीय ऐतिहासिक एहसान हैं, फिर भी जो संभवतः त्राुटिपूर्ण सर्वे व अनुचित वर्गीकरण की दुरभिसंधि के कारण समाज के अंतिम पायदान पर जबरिया धकेल दिये गये और जिन्होंने बेवजह पीढ़ी दर पीढ़ी सामाजिक पक्षपात, उपेक्षा एवं घोर अपमान को भोगा है। भावांजलि के साथ बहुत गहराई से स्वीकार करता हूँ कि इसी समुदाय के मेरे भ्रातातुल्य मित्रा व प्रथम शोध निदेशक रहे स्व. डाॅ. विजय बघेल को, जिन्होंने शोध हेतु इस चुनौती पूर्ण विषय के मेरे चयन को सही ठहराया तथा जब तक जीवित रहे सदैव मेरा हौसला बढ़ाया।
राजाराम त्रिपाठी
यह पुस्तक सादर समर्पित है उस गौरवशाली शूरवीर कलाविद ‘गांडा समाज के प्रत्येक सदस्य को जिन्हें दुरभिसंधिवश बेवजह समाज के अंतिम पायदान पर धकेल दिया।
जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान..✍️
