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पर्यावरण संरक्षण के लिए CSR फंडिंग पर पुनर्विचार की आवश्यकता

सम्पादक जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) फंडिंग में त्वरित परिणामों और दिखावटी उपलब्धियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है, जिसके कारण पर्यावरण संरक्षण जैसे दीर्घकालिक और शोध-आधारित प्रयासों को पर्याप्त समर्थन नहीं मिल पाता।

कॉम्पनीज एक्ट, 2013 और CSR का योगदान
2013 में लागू हुए कॉम्पनीज एक्ट के तहत कंपनियों को अपने शुद्ध लाभ का 2% हिस्सा CSR गतिविधियों के लिए देना अनिवार्य है। इससे कॉरपोरेट दान में बदलाव आया है, जो पहले अनियोजित था, लेकिन अब यह सामुदायिक और हितधारकों की जरूरतों को पूरा करने वाले दीर्घकालिक प्रोजेक्ट्स की ओर बढ़ रहा है। वित्तीय वर्ष 2023-24 में शिक्षा क्षेत्र को सबसे अधिक 12,134 करोड़ रुपये का फंड मिला, जबकि स्वास्थ्य, स्वच्छता और गरीबी उन्मूलन के लिए 9,087 करोड़ रुपये दिए गए। इसके विपरीत, पर्यावरण, पशु कल्याण और संसाधन संरक्षण के लिए केवल 3,459 करोड़ रुपये ही आवंटित हुए।

शहरी क्षेत्रों पर अधिक ध्यान
CSR फंडिंग में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच असमानता साफ दिखती है। उदाहरण के लिए, चेन्नई जैसे बड़े शहर को अधिक फंडिंग मिलती है, जबकि ग्रामीण और पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को नजरअंदाज किया जाता है। तमिलनाडु की एकमात्र बारहमासी नदी थामिरभरनी के लिए एक शैक्षिक जागरूकता कार्यक्रम के लिए फंड जुटाना मुश्किल रहा, क्योंकि कंपनियां शहरी क्षेत्रों में दृश्यमान परियोजनाओं को प्राथमिकता देती हैं। इसका कारण है कर्मचारी सहभागिता और ब्रांडिंग के लिए ऐसी परियोजनाओं को चुनना, जो कॉरपोरेट ऑफिस के नजदीक हों और जहां साइनबोर्ड लगाकर कंपनी की उपस्थिति दिखाई जा सके। इससे दूरदराज के महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी क्षेत्र उपेक्षित रह जाते हैं।

तात्कालिक दृश्यता बनाम दीर्घकालिक प्रभाव
कई CSR फंडर पर्यावरण संरक्षण की गहरी समझ के बिना त्वरित परिणामों पर ध्यान देते हैं। उदाहरण के लिए, वृक्षारोपण जैसे प्रोजेक्ट्स को बढ़ावा दिया जाता है, लेकिन सही प्रजातियों का चयन, साइट की तैयारी और दीर्घकालिक रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। एक मामले में, 5,000 पौधे लगाए गए, लेकिन बाड़ न होने के कारण पशुओं ने उन्हें नष्ट कर दिया। जब हमने देशी प्रजातियों और सुरक्षा उपायों का सुझाव दिया, तो कंपनी ने अपने मूल प्लान को बदलने से इनकार कर दिया। इसी तरह, मैंग्रोव वृक्षारोपण जैसे प्रोजेक्ट्स, जो कार्बन अवशोषण के लिए लोकप्रिय हैं, अक्सर गलत स्थानों पर लगाए जाते हैं, जिससे 80% तक असफलता मिलती है।

वित्तीय वर्ष और पर्यावरणीय चक्रों का तालमेल न होना
CSR फंडिंग कंपनियों के वित्तीय वर्ष (मार्च-अप्रैल) पर आधारित होती है, जो पर्यावरणीय परियोजनाओं के मौसमी चक्रों से मेल नहीं खाती। जनवरी-फरवरी में कंपनियां अपने बचे हुए फंड का उपयोग करने के लिए जल्दबाजी में प्रोजेक्ट्स मांगती हैं, जिससे दीर्घकालिक योजना प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, एक बार हमने वन उत्पाद संग्रह के लिए प्रस्ताव दिया, लेकिन फंड किसी अन्य प्रोजेक्ट में चला गया।

क्या बदलाव चाहिए?

1. विशेषज्ञों की नियुक्ति: कंपनियों को पर्यावरण संरक्षण की समझ रखने वाले समर्पित CSR पेशेवर नियुक्त करने चाहिए, जो क्षेत्र की चुनौतियों को समझें और दीर्घकालिक प्रभाव पर ध्यान दें।

2. ‘वेंडर’ शब्द हटाएं: गैर-लाभकारी संगठनों को ‘वेंडर’ के बजाय संरक्षण साझेदार के रूप में देखा जाए, ताकि उनकी विशेषज्ञता को महत्व मिले।

3. सरकार की भूमिका: सरकार को जिम्मेदार नीतियां बनानी चाहिए, जैसे कि चेन्नई में मियावाकी जंगलों की जगह देशी प्रजातियों के रोपण को बढ़ावा देना।

4. गैर-लाभकारी संगठनों का ‘न’ कहना: संगठनों को उन प्रोजेक्ट्स को अस्वीकार करना चाहिए जो केवल दृश्यता के लिए हों। इससे उनकी विश्वसनीयता बनी रहती है।

5. सहयोग और बेहतर संचार: गैर-लाभकारी संगठन मिलकर सर्वोत्तम प्रथाओं के लिए मंच बना सकते हैं। साथ ही, संरक्षण की जटिल जानकारी को सरल और आकर्षक तरीके से जनता, सरकार और फंडरों तक पहुंचाना होगा।

जलवायु संकट और जैवविविधता के नुकसान के बीच CSR फंडिंग भारत के पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। लेकिन इसके लिए फंडिंग के तौर-तरीकों, प्राथमिकताओं और संचार में बदलाव जरूरी है। संगठनों को वैज्ञानिक जानकारी को रोचक और सुलभ बनाना होगा, ताकि दीर्घकालिक और प्रभावी पर्यावरण संरक्षण संभव हो सके।

Amar Chouhan

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