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छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: अडानी खदान क्षेत्र में सामुदायिक वन अधिकार रद्द करने के आदेश को सही ठहराया गया

एडिटर जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम रायगढ़/सरगुजा |

हसदेव अरंड के घने जंगलों में एक बार फिर विकास और वन अधिकारों की जंग छिड़ गई है। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने हाल ही में अपने एक अहम फैसले में सरगुजा जिले के घाटबर्रा गांव के सामुदायिक वन अधिकारों को रद्द करने के आदेश को सही ठहराया है। यह वही इलाका है, जहाँ अडानी समूह की एक सहायक कंपनी अडानी माइनिंग लिमिटेड परसा ईस्ट और केटे बासेन कोयला खदानों का संचालन करती है।

8 अक्टूबर को न्यायमूर्ति राकेश मोहन पांडे की एकलपीठ ने कहा कि वर्ष 2013 में घाटबर्रा के ग्रामीणों को जो सामुदायिक वन अधिकार दिए गए थे, वह “गलती से” प्रदान किए गए थे, क्योंकि 2012 में ही इस भूमि को खनन परियोजना के लिए स्थानांतरित किया जा चुका था। अदालत ने इसे “गलती का सुधार” बताते हुए कहा कि वन अधिकारों का वह आदेश शुरू से ही कानूनी रूप से शून्य माना जाएगा।




🔹 क्या है मामला

हसदेव अरंड क्षेत्र, जो छत्तीसगढ़ का सबसे समृद्ध वन इलाका माना जाता है, में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (RSVPCL) को दो कोयला ब्लॉक – परसा ईस्ट और केटे बासेन – आवंटित किए गए हैं। इन खदानों का संचालन अडानी समूह करता है।

वर्ष 2013 में घाटबर्रा ग्राम की वन अधिकार समिति को सामुदायिक वन अधिकार प्रदान किए गए थे, जिससे ग्रामीणों को अपने पारंपरिक जंगल और भूमि पर अधिकार मिला था। लेकिन कुछ साल बाद, जिला स्तरीय समिति ने इन अधिकारों को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि भूमि पहले ही खनन के लिए दी जा चुकी थी।




🔹 याचिका और तर्क

ग्रामीणों की ओर से हसदेव अरंड बचाओ संघर्ष समिति और अन्य सामाजिक संगठनों ने अदालत में याचिका दायर कर कहा कि जिला समिति के पास अपने ही निर्णय को पलटने का अधिकार नहीं है, और ग्रामीणों को अपना पक्ष रखने का अवसर भी नहीं दिया गया।

हालांकि, हाईकोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ताओं ने 2011, 2012 और 2015 के उन आदेशों को चुनौती ही नहीं दी, जिनके तहत कोयला खनन की मंजूरी दी गई थी। न्यायालय ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता पहले 2022 में भूमि अधिग्रहण को लेकर दायर अन्य याचिकाओं में हार चुके हैं, और उन्होंने अदालत से महत्वपूर्ण तथ्य छिपाए हैं।




🔹 न्यायालय का निर्णय

अदालत ने माना कि पिछले 10 वर्षों में खनन का पहला चरण पूरा हो चुका है और 2022 में दूसरे चरण की मंजूरी भी मिल चुकी है। ऐसे में अब सामुदायिक या व्यक्तिगत वन अधिकारों पर दावा धनराशि के रूप में मुआवजे से निपटाया जा सकता है।

न्यायाधीश ने अपने आदेश में कहा –

> “जब भूमि पहले ही खनन के लिए दी जा चुकी थी, तब उस पर 2013 में वन अधिकार देना कानूनी रूप से गलत था। अब इस गलती को सुधार लिया गया है।”






🔹 कानूनी पृष्ठभूमि

हसदेव अरंड क्षेत्र में कोयला खनन को लेकर विवाद नया नहीं है।
2011 में केंद्र सरकार ने RSVPCL को पर्यावरण की सैद्धांतिक मंजूरी दी थी, और 2012 में वन भूमि परिवर्तन की अनुमति भी मिल गई थी।
लेकिन 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने 200 से अधिक कोयला ब्लॉक रद्द कर दिए थे, जिनमें हसदेव का परसा कोल ब्लॉक भी शामिल था।

इसके बाद, 2015 में केंद्र ने कोयला खान (विशेष प्रावधान) अधिनियम लाकर उन्हीं खदानों को फिर से राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित कर दिया।




🔹 हसदेव के जंगलों पर बढ़ता खतरा

पर्यावरण कार्यकर्ताओं और स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि खनन के विस्तार से हसदेव अरंड के घने जंगल, नदियाँ और वन्यजीव गंभीर खतरे में हैं। यह क्षेत्र न केवल हाथियों के प्राकृतिक मार्ग में आता है, बल्कि हजारों आदिवासी परिवारों की आजीविका का भी केंद्र है।

हसदेव अरंड बचाओ संघर्ष समिति का कहना है कि सरकार और कंपनियों की इस साझेदारी में ग्रामीणों की आवाज को दबाया जा रहा है।




🔹 आगे क्या

हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद अब ग्रामीणों के पास सुप्रीम कोर्ट में अपील का रास्ता बचा है। हालांकि, इतने वर्षों में खनन का विस्तार और कानूनी पेचों के चलते यह लड़ाई और भी कठिन हो गई है।

हसदेव अरंड का यह संघर्ष सिर्फ एक गांव की जमीन या खदान का नहीं, बल्कि जंगल, जल और जनजीवन की उस जंग का प्रतीक है, जो आज भी देश के कई कोनों में लड़ी जा रही है।

Amar Chouhan

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