छत्तीसगढ़ के पुरुंगा कोल ब्लॉक: भूमिगत खनन की छाया में सूखते जल स्रोत और किसानों का अनिश्चित भविष्य

एडिटर जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम रायगढ़, छत्तीसगढ़। धरमजयगढ़ इलाके के चार गांव—कोकदार, तेंदुमुड़ी, पुरुंगा और समरसिंघा—आज एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां विकास का वादा पर्यावरणीय तबाही की कीमत पर आ रहा है। अंबुजा सीमेंट्स लिमिटेड, द्वारा प्रस्तावित पुरुंगा अंडरग्राउंड कोल माइन प्रोजेक्ट ने इन गांवों को विवाद के केंद्र में ला खड़ा किया है। 869 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले इस ब्लॉक से सालाना 2.25 मिलियन टन कोयले का उत्पादन लक्ष्य रखा गया है, लेकिन स्थानीय निवासियों का कहना है कि यह खनन उनके जल स्रोतों को मृत कर देगा, खेती को नामुमकिन बना देगा और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद कर देगा। 11 नवंबर को होने वाली जनसुनवाई से पहले ही विरोध की लहरें उठ रही हैं, जो बताती हैं कि कोयला आधारित विकास की राह कितनी कंटीली है।
यह इलाका अब तक अपेक्षाकृत अनछुआ रहा है- घने जंगलों, नदियों, नालों और छोटे-छोटे पहाड़ों से घिरा। लेकिन पुरुंगा कोल ब्लॉक का आवंटन पहले छत्तीसगढ़ नेचुरल रिसोर्सेस प्राइवेट लिमिटेड को मिला था, जिसे बाद में अंबुजा सीमेंट्स को ट्रांसफर कर दिया गया। इस ट्रांसफर के साथ ही प्रोजेक्ट ने गति पकड़ी, और अब 2028 में खनन शुरू होने की संभावना है। अधिग्रहण के दायरे में 621.33 हेक्टेयर वन भूमि, 26.89 हेक्टेयर सरकारी भूमि और 220 हेक्टेयर निजी भूमि आती है। कंपनी का दावा है कि यह भूमिगत खनन होने से सतही क्षति न्यूनतम होगी, लेकिन विशेषज्ञ और स्थानीय अनुभव कुछ और ही कहानी बयां करते हैं।
पर्यावरणीय तबाही की आहट: जल स्रोतों का सूखना और दलदली खेत
भूमिगत खनन का सबसे बड़ा खतरा सतही जल निकायों पर मंडराता है। इन चार गांवों में छोटे तालाब, कुएं, बोरवेल और नदी-नाले ही जीवन की धुरी हैं। खनन के दौरान कोयले की परतों से पानी निकालना अनिवार्य होता है, जो की जल स्तर को बुरी तरह प्रभावित करता है। परिणामस्वरूप, सतही जल स्रोत सूख जाते हैं, और खेत दलदली हो जाते हैं। गर्मियों में जमीन पर दरारें पड़ती हैं, जिनसे गर्म हवा निकलती है—यह न केवल फसलों को नुकसान पहुंचाती है बल्कि मिट्टी की उर्वरता को भी कम कर देती है।
छत्तीसगढ़ में कोयला खनन के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि रायगढ़ जिले में पहले से ही वायु, मिट्टी और जल प्रदूषण से समुदाय प्रभावित हैं। यहां के निवासियों में श्वसन संबंधी बीमारियां, त्वचा रोग और भारी धातुओं के कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं आम हैं। पुरुंगा प्रोजेक्ट के मामले में, ओवरबर्डन (ओबी) की मोटाई अधिक होने से भूमिगत विधि अपनाई जा रही है, लेकिन इससे जल निकासी की समस्या और बढ़ जाती है। जल जीवन मिशन के तहत बनी टंकियां भी बेकार हो सकती हैं, क्योंकि जल का प्रदूषण पीने के पानी को असुरक्षित बना देगा।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो भूमिगत कोयला खनन से जल प्रदूषण के कई उदाहरण हैं—जैसे थार कोल ब्लॉक में सिंध एंग्रो कोल माइनिंग कंपनी द्वारा संचालित परियोजना में भूजल स्रोतों में भारी धातुओं की उच्च सांद्रता पाई गई, जो डब्ल्यूएचओ मानकों से कहीं अधिक है। इसी तरह, असम के डेहिंग पटकाई रेंज में ओपनकास्ट माइनिंग ने जल चैनलों को नष्ट कर दिया, जिससे फसलें बर्बाद हुईं और स्वास्थ्य जोखिम बढ़े। पुरुंगा में भी यही खतरा है, जहां आसपास की नदियां और नाले पहले से ही प्राकृतिक रूप से समृद्ध हैं।
कृषि और आजीविका पर संकट: रबी फसल का अंत?
इन गांवों की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर टिकी है। खरीफ सीजन में बारिश के सहारे खेती हो जाती है, लेकिन भूमिगत खनन से बोरवेल फेल हो जाते हैं, जिससे रबी सीजन में सिंचाई असंभव हो जाती है। किसानों का कहना है कि उनकी जमीनें भले न ली जाएं, लेकिन खेती करना कठिन हो जाएगा। मिट्टी की दरारें और दलदली हालत फसलों को चौपट कर देंगी। स्थानीय निवासी पहले से ही चिंतित हैं कि पीने का पानी बाहर से सप्लाई करना पड़ेगा, जो उनकी स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता पर चोट है।
रायगढ़ में पहले से चल रहे कोयला खननों से सबक लेते हुए, विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रोजेक्ट बायोडायवर्सिटी को नष्ट करेगा और मिट्टी के कटाव को बढ़ावा देगा। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कोयला खनन से निकलने वाले रसायनों से भूजल और सतही जल प्रदूषित होता है, जो स्थानीय समुदायों के लिए स्वास्थ्य संकट पैदा करता है।
विरोध की लहर और जनसुनवाई का इंतजार
ग्रामीणों का विरोध अब संगठित रूप ले रहा है। वे कहते हैं कि यह इलाका अब तक शांत रहा है, लेकिन खनन से सब कुछ बदल जाएगा। 11 नवंबर की जनसुनवाई को लेकर तनाव है—पिछले अनुभवों से पता चलता है कि ऐसी सुनवाइयां अक्सर औपचारिकता बन जाती हैं, जहां स्थानीय आवाजें दबा दी जाती हैं। अंबुजा सीमेंट्स पर पहले भी पर्यावरणीय उल्लंघनों के आरोप लगे हैं, जैसे गारे पेलमा IV/8 माइन में, जहां संयुक्त समिति ने नियमों का उल्लंघन पाया।
विपक्षी नेता जैसे जयराम रमेश ने ऐसे कोयला ब्लॉकों को ‘नो-गो’ क्षेत्रों में रखने की वकालत की है, जहां पर्यावरणीय प्रभाव भयावह हो सकता है। वे कहते हैं कि ऐसे प्रोजेक्ट्स से सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
कंपनी और सरकार का पक्ष: विकास vs. स्थिरता
अंबुजा सीमेंट्स का कहना है कि यह प्रोजेक्ट आर्थिक विकास लाएगा—रोजगार, राजस्व और ऊर्जा सुरक्षा। पर्यावरण मंजूरी के लिए ईआईए रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भूमिगत विधि से सतही क्षति कम होगी, और प्रतिपूरक वनीकरण किया जाएगा। केंद्रीय कोयला मंत्रालय भी पर्यावरण संरक्षण पर जोर देता है, और कहता है कि छत्तीसगढ़ में कई ब्लॉकों को खनन से बाहर रखा गया है ताकि पर्यावरण सुरक्षित रहे।
हालांकि, आलोचक पूछते हैं कि जब पहले से ही चल रहे माइनों में उल्लंघन हो रहे हैं, तो नए प्रोजेक्ट्स की क्या गारंटी? इस समूह से जुड़े अन्य प्रोजेक्ट्स, जैसे हसदेव अरण्य में, में भी जंगलों की कटाई पर विवाद रहा है।
एक संतुलित रास्ता तलाशने की जरूरत
पुरुंगा कोल ब्लॉक छत्तीसगढ़ की कोयला-आधारित अर्थव्यवस्था का एक और अध्याय है, लेकिन इसकी कीमत चार गांवों के निवासी चुका रहे हैं। विकास जरूरी है, लेकिन क्या यह जल स्रोतों की मौत और किसानों के संघर्ष पर टिका होना चाहिए? जनसुनवाई में सभी पक्षों की सुनवाई होनी चाहिए, और स्वतंत्र पर्यावरणीय मूल्यांकन अनिवार्य। अन्यथा, यह प्रोजेक्ट न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी को नष्ट करेगा बल्कि विकास की अवधारणा पर ही सवाल खड़े कर देगा। समय है कि हम ‘प्रकृति रक्षति रक्षिता’ के सिद्धांत को सिर्फ शब्दों में नहीं, कर्म में अपनाएं।