मानकेश्वरी मंदिर कर्मागढ़ में 500 साल पुरानी परंपरा: शरद पूर्णिमा पर बलि, बैगा ने पीया बकरे का खून

एडिटर जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम रायगढ़। जिले के ऐतिहासिक करमागढ़ गांव स्थित मानकेश्वरी देवी मंदिर एक बार फिर चर्चा में है। हर साल शरद पूर्णिमा के दिन यहां सदियों पुरानी, रहस्यमयी और अनूठी परंपरा निभाई जाती है—जिसमें मुख्य बैगा द्वारा 40 बकरों की बलि देकर उनका खून पिया गया। इस अद्वितीय रस्म को लेकर पूरे क्षेत्र में आस्था और रोमांच, दोनों का माहौल रहा।
राजघराने की कुलदेवी, गांवों की आस्था मानकेश्वरी देवी रायगढ़ राजघराने की कुलदेवी हैं। जिला मुख्यालय से 27 किमी दूर करमागढ़ मंदिर में शरद पूर्णिमा के दिन ग्रामीण और दूर-दराज के श्रद्धालु भारी संख्या में पहुंचते हैं। मान्यता है कि माता के आह्वान पर जिनकी मनोकामना पूरी होती है, वे मंदिर में बकरा और नारियल चढ़ाते हैं। बलि पूजा आरंभ होने से एक रात पहले निशा पूजा तथा खास पूजा-विधि की जाती है, और पूजा के दौरान बैगा के शरीर में देवी का वास माना जाता है।

बलि और रक्तपान की परंपरा बलि पूजा की यह परंपरा लगभग 500 वर्षों से चली आ रही है। ग्रामीणों के अनुसार पहले 150-200 बकरों की बलि दी जाती थी, जिसकी संख्या अब घटकर 40 रह गई है। जैसे ही पूजा शुरू होती है, बैगा ‘देवी अवतरण’ के प्रतीक स्वरूप इन बकरों का खून पीता है। चमत्कारिक यह कि इतने खून के सेवन के बावजूद बैगा को कोई दुष्प्रभाव नहीं होता, यह भी लोगों की आस्था का केंद्र है।
श्रद्धा, रोमांच और मौन सवाल पूरी प्रक्रिया के दौरान मंदिर परिसर में लोकगीत, पूजा और तांत्रिक अनुष्ठान होता है। बलि के बाद देवी प्रसन्न मानी जाती हैं और श्रद्धालुओं में प्रसाद का वितरण होता है। छत्तीसगढ़, ओडिशा व आसपास के जिलों से आये सैकड़ों लोग इस आयोजन का हिस्सा बनते हैं। वहीं प्राचीन परंपरा को लेकर समाज में कभी-कभार सवाल भी खड़े होते हैं, लेकिन स्थानीय संस्कृति और श्रद्धा के लिये यह आज भी जीवंत बनी हुई है।

मानकेश्वरी देवी मंदिर में मनाए जाने वाली यह रस्म सिर्फ धर्म-विश्वास की नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर और समाज की आस्था का प्रतीक भी है। ग्रामीणों का दावा है कि इतने वर्षों में कभी न कोई वैज्ञानिक दुष्प्रभाव देखा गया, न परंपरा में कोई व्यवधान आया। आज भी, शरद पूर्णिमा पर देवी और उनके पुजारी बैगा के रहस्यपूर्ण जुड़ाव को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं, और यह परंपरा समय के साथ-साथ समाज में गहराई से जड़ें जमाए हुए है।
समाचार सहयोगी सिकंदर चौहान