आदिवासी समुदाय पर संकट: जल, जंगल, जमीन का दोहन और खाद्य सुरक्षा का खतरा

सम्पादक जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम भारत के आदिवासी समुदाय, जो अपनी समृद्ध संस्कृति, परंपराओं और सभ्यता के लिए जाने जाते हैं, आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इन समुदायों का जीवन जल, जंगल और जमीन से गहराई से जुड़ा हुआ है, जो न केवल उनकी आजीविका का आधार है, बल्कि उनकी खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक पहचान का भी मूल है। फिर भी, बड़े पैमाने पर औद्योगिक परियोजनाएं, कोयला खदानें, बॉक्साइट खदानें और लोहा खदानें आदिवासियों के इन संसाधनों को छीन रही हैं, जिससे उनकी आजीविका और खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ रही है।
जंगल और नदियां: आदिवासियों की जीवन रेखा
आदिवासी समुदाय जंगलों से तेंदूपत्ता, महुआ, डोरी, बहेड़ा, आंवला, सराई बीज और जड़ी-बूटियां एकत्रित कर अपनी आजीविका चलाते हैं। इसके अलावा, करील, पूटू मशरूम, फल-फूल और भांजी जैसे जंगल के उत्पाद उनकी खाद्य सुरक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। नदियों से मछली, घोंघी और केकड़ा जैसे जल जीव उनके भोजन का अभिन्न अंग हैं। साथ ही, गाय, बैल, बकरी, भेड़, सुअर और मुर्गी पालन के जरिए आदिवासी न केवल अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करते हैं, बल्कि आय के स्रोत भी विकसित करते हैं।
औद्योगिक विकास का बोझ
छत्तीसगढ़ के हसदेव, मूडागांव के जंगल और बस्तर के बैलाडीला में लोहा खदानों जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर खनन गतिविधियां चल रही हैं। इन परियोजनाओं का सबसे ज्यादा प्रभाव आदिवासी समुदायों पर पड़ रहा है। हसदेव के जंगलों में, जहां अडानी समूह की परसा कोयला खदान के लिए हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं, आदिवासियों पर पुलिस का लाठीचार्ज और दमन इसका जीवंत उदाहरण है। इसी तरह, गडचिरोली में लॉयड्स कंपनी को आयरन ओर शुद्धिकरण प्लांट के लिए 900 हेक्टेयर जंगल और लाखों पेड़ों की कटाई की मंजूरी दी गई है, जो जैवविविधता और आदिवासी जीवन दोनों के लिए खतरा है।

कानूनों का खोखलापन
आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (पेसा), वन अधिकार अधिनियम (FRA), पंचायती राज कानून, खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार और जीने का अधिकार जैसे कई कानून बनाए गए हैं। लेकिन ये कानून अक्सर नौकरशाही की फाइलों में दम तोड़ देते हैं। वन अधिकार अधिनियम, जो आदिवासियों को जंगल और जमीन पर उनके पारंपरिक अधिकार देता है, कई राज्यों में प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाया है। उदाहरण के लिए, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में इस कानून का कार्यान्वयन निम्न स्तर पर है।
सरकारी नीतियों और पूंजीपतियों का गठजोड़
आदिवासी कार्यकर्ताओं और संगठनों का आरोप है कि सरकार विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन और संसाधनों को बड़े पूंजीपतियों को सौंप रही है। मध्यप्रदेश में आदिवासी बच्चों को बेघर कर भीख मांगने पर मजबूर किया जा रहा है, तो छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में अडानी की कंपनी द्वारा जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला का कहना है कि सरकार द्वारा ग्राम सभा के अधिकारों का उल्लंघन कर जमीनें कॉरेपोरेट घरानों को दी जा रही हैं।
आदिवासियों का संघर्ष और भविष्य
आदिवासी समुदाय अपनी जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। बिरसा मुंडा से लेकर आज के आंदोलनों तक, आदिवासियों ने हमेशा अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई है। लेकिन सरकार और कॉरपोरेट गठजोड़ द्वारा उनके संघर्ष को दबाने की कोशिशें बढ़ती जा रही हैं। कार्यकर्ताओं को देशद्रोही करार देकर जेल में डाला जा रहा है, फिर भी आदिवासी अपने हक की लड़ाई में डटे हुए हैं।

आदिवासियों का जल, जंगल और जमीन से गहरा रिश्ता उनकी संस्कृति, खाद्य सुरक्षा और आजीविका का आधार है। लेकिन औद्योगिक परियोजनाओं और खनन गतिविधियों ने उनके जीवन को संकट में डाल दिया है। कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन और आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के बिना, देश का यह मूल निवासी समुदाय हाशिए पर धकेला जा रहा है। यह समय है कि सरकार और समाज मिलकर आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन और उनकी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए ठोस कदम उठाए, ताकि उनकी खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित हो सके।