“रायगढ़ के कोयले से परहेज” — 14वें राउंड में पांच कोल ब्लॉक खाली, कंपनियों की चुप्पी ने खड़े किए सवाल

फ्रीलांस एडिटर अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम रायगढ़।
जिले में कोयला खनन के खिलाफ उठती आवाज़ें अब सिर्फ सड़कों और सभाओं तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि दिल्ली तक असर दिखाने लगी हैं। कोल ब्लॉक ऑक्शन के 14वें राउंड में रायगढ़ जिले की एक भी कोयला खदान के लिए बोली नहीं लगना इसी बदले हुए माहौल की सबसे ठोस मिसाल मानी जा रही है। अक्टूबर में जारी की गई 41 कोल ब्लॉक्स की सूची में रायगढ़ के पांच ब्लॉक शामिल थे, लेकिन नीलामी के दौरान किसी भी कंपनी ने इनमें रुचि नहीं दिखाई।
यह महज़ संयोग नहीं माना जा रहा। जानकारों के मुताबिक, यह पहला मौका नहीं है जब रायगढ़ की खदानें नीलामी में खाली रहीं। 13वें राउंड में भी नवागांव ईस्ट और नवागांव वेस्ट कोल ब्लॉक्स के लिए बोली आमंत्रित की गई थी, लेकिन तब भी कोई बिड सामने नहीं आई थी। लगातार दो राउंड में जिले की खदानों को नजरअंदाज किया जाना, कोयला क्षेत्र में एक गहरे संदेश की ओर इशारा करता है।
41 में से 19 पर ही दिलचस्पी
कोयला मंत्रालय ने सीएमएसपी (कोल माइंस स्पेशल प्रोविजन्स एक्ट) और एमएमडीआर (माइंस एंड मिनरल्स डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन्स एक्ट) के तहत कुल 41 नए कोल ब्लॉक्स नीलामी के लिए रखे थे। इनमें से 19 खदानों के लिए दो या उससे अधिक कंपनियों ने रुचि दिखाई, जबकि पांच माइंस के लिए सिंगल बिड आई। इसके उलट रायगढ़ जिले के गोढ़ी महलोई-बिजना, गोढ़ी महलोई-अमलीढोंढ़ा, गोढ़ी महलोई-देवगांव, गोढ़ी महलोई-कसडोल और टेरम कोल ब्लॉक—इन पांचों के लिए एक भी बोली नहीं लगी।
विरोध का असर या निवेशकों की गणित?
सवाल यह है कि कंपनियां रायगढ़ से पीछे क्यों हट रही हैं? प्रशासनिक गलियारों में इसे “तकनीकी कारण” या “व्यावसायिक गणना” बताया जा रहा है, लेकिन जमीनी हकीकत इससे कहीं आगे जाती दिख रही है। पिछले कुछ महीनों में रायगढ़ जिले में कोयला खनन के खिलाफ ग्रामीणों का विरोध लगातार तेज हुआ है। जल-जंगल-जमीन के सवाल पर आदिवासी और किसान खुलकर सामने आए हैं। कोई भी अपनी जमीन देने को तैयार नहीं है।
दो जनसुनवाइयों को लेकर जिस तरह विवाद खड़े हुए, लाठीचार्ज और जबरन प्रक्रिया के आरोप लगे, उसने जिले की छवि एक “संवेदनशील और विवादग्रस्त क्षेत्र” के रूप में बना दी है। निवेशक कंपनियां ऐसे इलाकों से आमतौर पर दूरी बनाना पसंद करती हैं, जहां परियोजना शुरू होने से पहले ही आंदोलन और कानूनी अड़चनों की आशंका हो।
सिर्फ विरोध नहीं, नीति पर भी सवाल
विशेषज्ञों का मानना है कि मामला सिर्फ जनविरोध का नहीं है। रायगढ़ में कोयला खनन से जुड़ी पर्यावरणीय चुनौतियां, वन भूमि, पेसा कानून और पांचवीं अनुसूची की जटिलताएं भी कंपनियों के फैसले को प्रभावित कर रही हैं। लंबी कानूनी प्रक्रिया, सामाजिक टकराव और परियोजना में देरी—इन सबका सीधा असर लागत और मुनाफे पर पड़ता है।
यही वजह है कि कोल इंडिया पर दबाव कम करने और निजी क्षेत्र को कमर्शियल माइनिंग में लाने की केंद्र सरकार की मंशा के बावजूद, रायगढ़ जैसे इलाकों में कंपनियां कदम रखने से पहले कई बार सोच रही हैं।
खामोश संकेत
रायगढ़ के पांच कोल ब्लॉक्स का खाली रह जाना एक खामोश संकेत है—सरकार के लिए भी और उद्योग जगत के लिए भी। यह संकेत बताता है कि बिना स्थानीय सहमति और भरोसे के, खनिज संपदा की नीलामी कागजों तक सीमित रह सकती है।
अब सवाल यह नहीं रह गया कि “विरोध प्रदर्शन का इफेक्ट है या कुछ और”, बल्कि असली सवाल यह है कि क्या नीति-निर्माता इस संदेश को समझेंगे या रायगढ़ की खदानें आने वाले राउंड में भी यूं ही खाली पड़ी रहेंगी।