वन अधिकार की आड़ में वन अपराध! बाकारुमा परिक्षेत्र में खुला जंगलों की लूट का खेल—रक्षक बना भक्षक, अब कार्रवाई..

फ्रीलांस एडिटर अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम धरमजयगढ़।
धर्मजयगढ़ वन मंडल के अंतर्गत आने वाले बाकारुमा वन परिक्षेत्र में अवैध जंगल कटाई का मामला एक बार फिर गंभीर मोड़ पर पहुंच गया है। इस बार आरोप केवल अतिक्रमण या छिटपुट कटाई के नहीं, बल्कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980, भारतीय वन अधिनियम एवं विभागीय नियमों की सुनियोजित अवहेलना के हैं। ग्रामीणों ने वन अधिकार पट्टे की आड़ में बड़े पैमाने पर जंगलों के सफाए का आरोप लगाते हुए वन मंडलाधिकारी (DFO) धरमजयगढ़ एवं बाकारुमा रेंजर को लिखित शिकायत सौंपकर कड़ी विभागीय और कानूनी कार्रवाई की मांग की है।
ग्रामीणों द्वारा सौंपे गए शिकायती पत्र में स्पष्ट आरोप लगाया गया है कि बाकारुमा वन परिक्षेत्र की चिरोडीह बीट में पदस्थ बीट गार्ड समीर तिर्की के संरक्षण में अवैध कब्जा, हरे-भरे पेड़ों की कटाई, लकड़ी की चिराई और खुले बाजार में बिक्री का संगठित खेल लंबे समय से चल रहा है। शिकायत के अनुसार गेल्हापानी, थोलापारा, खूटसराई, पीठापानी एवं सेनाआमा गांव क्षेत्र के एक विशेष समाज के लोगों को योजनाबद्ध तरीके से वनभूमि पर काबिज कराया गया।
सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि केवल वृक्षों की कटाई तक मामला सीमित नहीं रहा। ग्रामीणों का आरोप है कि कब्जाई गई वनभूमि को जेसीबी मशीनों से समतल कर खेती योग्य बनाया गया, जो कि वन संरक्षण अधिनियम की धारा-2 के अंतर्गत सीधा अपराध है। बिना केंद्र सरकार की अनुमति वन भूमि का गैर-वन उपयोग न केवल अवैध है, बल्कि इसमें विभागीय जिम्मेदारी भी तय होती है।
वहीं दूसरी ओर, जो ग्रामीण पिछले कई दशकों से जंगलों पर आश्रित रहे हैं—महुआ, तेंदूपत्ता, सूखी लकड़ी एवं अन्य लघु वनोपज जिन पर उनका पारंपरिक अधिकार रहा है—उन्हें अब जंगल में प्रवेश तक से रोका जा रहा है। ग्रामीणों का कहना है कि पुराने और वास्तविक आश्रितों पर सख्ती दिखाई जाती है, जबकि कथित लेन-देन के बाद नए कब्जाधारियों को खुली छूट दी जा रही है। हालात ऐसे बन गए हैं कि जंगल पर काबिज लोग बाहरी ग्रामीणों को भीतर जाने तक नहीं दे रहे, जबकि भीतर लगातार जंगल उजाड़ा जा रहा है।
मामले में जब बीट गार्ड समीर तिर्की से प्रतिक्रिया ली गई, तो उन्होंने इसे “दो पक्षों का आपसी विवाद” बताकर स्वयं को विवश बताया। उनका कहना था कि एक पक्ष को रोका जाता है तो दूसरा पक्ष जंगल काटने लगता है और यह विवाद पहले भी शिकायतों के बाद सुलझाया जा चुका है।
लेकिन यही बयान विभागीय कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है। यदि विवाद वर्षों से चला आ रहा है, तो अब तक संयुक्त निरीक्षण, सीमांकन, पंचनामा और कठोर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? सैकड़ों पेड़ कटे, भारी मशीनें चलीं, लकड़ी की चिराई और बिक्री हुई—और विभाग को कुछ दिखाई नहीं दिया?
वन संरक्षण अधिनियम और विभागीय नियम स्पष्ट हैं कि जंगलों की सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल बीट गार्ड की नहीं, बल्कि रेंजर से लेकर DFO तक की सामूहिक जिम्मेदारी है। यदि जानकारी के बावजूद कार्रवाई नहीं हुई, तो यह लापरवाही नहीं बल्कि संरक्षण के नाम पर संरक्षण माना जाएगा।
गौरतलब है कि बाकारुमा वन परिक्षेत्र पूर्व में भी अवैध कटाई और अतिक्रमण के मामलों को लेकर विवादों में रहा है। इस ताजा प्रकरण ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या यहां वनरक्षक वास्तव में जंगलों की रक्षा कर रहे हैं या फिर रक्षक की वर्दी में भक्षक बनकर वन संपदा का दोहन कर रहे हैं।
अब सबकी निगाहें वन मंडलाधिकारी धरमजयगढ़ पर टिकी हैं। यदि इस शिकायत की निष्पक्ष जांच कर दोषी बीट गार्ड, संबंधित अधिकारियों और अवैध कब्जाधारियों पर वन संरक्षण अधिनियम के तहत सख्त कार्रवाई नहीं होती, तो यह केवल बाकारुमा नहीं, बल्कि पूरे वन विभाग की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्नचिह्न होगा।
जंगल बचाने की जिम्मेदारी कागजों से नहीं, कठोर और उदाहरणात्मक कार्रवाई से तय होगी—अब फैसला विभाग को करना है।