भारत की सड़कों पर चलती ‘मोबाइल कब्रगाहें’: स्लीपर बसों पर बढ़ते हादसों ने खोली परिवहन व्यवस्था की पोल

फ्रीलांस एडिटर जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम
आंध्र प्रदेश के कुरनूल और राजस्थान के जैसलमेर में लगी भीषण आग के बाद जली हुई बसों के ढांचे एक बार फिर भारत के सड़क परिवहन तंत्र की खामियों को बेनकाब कर रहे हैं। यह सिर्फ दो दुर्घटनाएँ नहीं थीं—यह उन व्यवस्थागत विफलताओं की उजागर तस्वीरें हैं जो हर साल सैकड़ों यात्रियों की जान ले लेती हैं। सवाल सीधा है: क्या भारत स्लीपर बसों के नाम पर यात्रियों को जोखिम की यात्रा पर भेज रहा है?
नियम तो हैं, लेकिन जमीन पर नदारद
देश में बस सुरक्षा के लिए कड़े दिशानिर्देश—केंद्रीय मोटर वाहन (CMV) नियम, ऑटोमोटिव इंडस्ट्री स्टैंडर्ड AIS-119, और AIS-052 कोड—कागज़ पर मौजूद हैं।
इनमें चार अनिवार्य इमरजेंसी एग्ज़िट, छत के हैच, फायर सप्रेशन सिस्टम, अग्निरोधी फर्निशिंग और कम से कम 450 मिमी चौड़ा गैंगवे अनिवार्य है।
लेकिन वास्तविकता में, यात्रियों को ऐसी बसें मिलती हैं जहाँ:
आपातकालीन निकास सील पाए जाते हैं
खिड़कियों के हथौड़े गायब
ज्वलनशील फोम और प्लाई की भरमार
रास्ते पर खड़ी बसें महज “चलता-फिरता ज्वलनशील बॉक्स”
निजी बस संचालक इन नियमों की खुलकर धज्जियाँ उड़ाते हैं, क्योंकि उनके लिए प्राथमिकता सुरक्षा नहीं, बल्कि अधिकतम लाभ है।
अवैध मॉडिफिकेशन: स्लीपर बस उद्योग का गंदा सच
अधिकतर प्राइवेट ऑपरेटर पहले एक सीटर बस चेसिस खरीदते हैं, फिर उसे लोकल वर्कशॉप में अवैध रूप से स्लीपर कोच में बदल देते हैं।
यहाँ:
अतिरिक्त बर्थ बनाकर ओवरलोडिंग
संरचनात्मक स्थिरता से समझौता
निकासी मार्ग संकुचित
और किसी भी प्रकार की इंजीनियरिंग जाँच लगभग शून्य
यही कारण है कि आग लगने या दुर्घटना की स्थिति में यात्री बाहर निकल ही नहीं पाते। कुरनूल और जैसलमेर की हालिया घटनाएँ इसकी दर्दनाक मिसाल हैं।
RTO की भूमिका पर गंभीर सवाल
सड़क सुरक्षा विशेषज्ञों का आरोप है कि फिटनेस सर्टिफिकेट (FC) नाम की औपचारिकता भी कई जगह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है।
कई बसें:
बिना निरीक्षण के फिटनेस सर्टिफिकेट ले लेती हैं
कम नियमों वाले राज्यों में पंजीकरण करा लेती हैं
और सबसे बड़ी बात—सिस्टेम को जानते हुए उसे चकमा देती रहती हैं
लालफीताशाही और भ्रष्टाचार का यह गठजोड़ आम नागरिक की जान पर भारी पड़ रहा है।
स्लिपर बसों का डिज़ाइन ही ‘असुरक्षित’
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों ने मल्टी-बंक स्लीपर बसों को सुरक्षा कारणों से बंद कर दिया है।
भारत में इसके उलट—इन्हीं बसों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
दो स्पष्ट समस्याएँ हैं:
1. क्षमता कम – एक स्लीपर बस, समान आकार की सीटिंग बस की तुलना में कम यात्री लेती है।
2. जोखिम अधिक – बंद बर्थ, कम जगह और सुरक्षित निकासी के अभाव में आग लगने पर जीवित बचना कठिन।
त्योहारी सीज़न में जब हजारों प्रवासी लंबी यात्रा करते हैं, यह मॉडल न तो सुरक्षित है, न ही व्यवहारिक।
लाखों प्रवासियों की मजबूरी पर टिका यह उद्योग
ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की कमी और शहरी पलायन भारत की हकीकत है।
रेलवे और सरकारी बसें इस भीड़ को संभाल नहीं पातीं।
नतीजतन, प्रवासी मजदूर और निम्न आय वर्ग के लोग मजबूर होते हैं कि:
अधिक किराया दें
नियमविहीन निजी स्लीपर बसों में सफ़र करें
और जोखिम को “किस्मत” मानकर यात्रा करें
यह केवल परिवहन से जुड़ी समस्या नहीं—यह सामाजिक-आर्थिक असमानता का दर्पण है।
क्या समाधान संभव है? विशेषज्ञों की राय
विशेषज्ञ तीन बड़े सुधार सुझाते हैं:
1. मल्टी-बंक स्लीपर बसों पर तत्काल प्रतिबंध
चीन सहित कई देशों ने इसी मॉडल को सुरक्षा कारणों से बंद किया है।
2. RTO की जगह तृतीय-पक्ष प्रमाणन प्रणाली
निर्माण, मॉडिफिकेशन और फिटनेस जांच—सब कुछ ऑडिटेड और पारदर्शी हो।
3. सुरक्षित व उच्च-क्षमता वाली सेमी-स्लीपर बसों को बढ़ावा
यह डिज़ाइन:
अधिक सुरक्षित
अधिक यात्रियों को ले जाने वाला
और स्लीपर कोच की तुलना में बेहतर संरचनात्मक अखंडता वाला है
यात्रियों की जान, लाभ से ऊपर होनी चाहिए
हर हादसा सिर्फ एक दुर्घटना नहीं, बल्कि यह सवाल है—
भारत में सड़क सुरक्षा किसी की प्राथमिकता क्यों नहीं है?
जब तक सरकार सुरक्षित, किफायती और भरोसेमंद सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध नहीं कराती, तब तक यात्रियों का जीवन निजी बस ऑपरेटरों की मनमानी के हवाले रहेगा।
कानून, नीति और प्रवर्तन—तीनों पर एक साथ कठोर कार्रवाई का समय आ चुका है।
नहीं तो सड़कों पर दौड़ती ये बसें यात्रियों के लिए सिर्फ ‘मोबाइल कब्रगाह’ बनती रहेंगी।
डेस्क रिपोर्ट