सरगुजा में 70 साल से खेती कर रहे परिवार की जमीन पर बुलडोजर, 4 दिव्यांगों समेत 12 लोगों ने राष्ट्रपति से मांगी ‘इच्छा मृत्यु’

विकास के नाम पर बेदखली, रसूख के आगे बेबस इंसानियत
सरगुजा।
लोकतंत्र में सरकार को ‘कल्याणकारी’ कहा जाता है, लेकिन सरगुजा जिले के ग्राम बटईकेला से सामने आई यह घटना उस दावे को कठघरे में खड़ा करती है। यहां एक गरीब किसान परिवार, जिसने पीढ़ियों की मेहनत से बंजर जमीन को उपजाऊ बनाया, आज उसी जमीन से बेदखल किए जाने के डर में जी रहा है। हालात इतने भयावह हो चुके हैं कि परिवार के 12 सदस्यों—जिनमें 4 दिव्यांग भी शामिल हैं—ने महामहिम राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु की अनुमति तक मांग ली है।
यह कोई भावनात्मक नारा नहीं, बल्कि प्रशासनिक अन्याय से उपजा वह दर्द है, जिसने एक पूरे परिवार को जीने की उम्मीद से वंचित कर दिया है।
70 वर्षों की मेहनत, एक आदेश में उजड़ने को मजबूर
मामला बतौली तहसील के ग्राम बटईकेला स्थित खसरा नंबर 1784 का है। राजस्व रिकॉर्ड में यह भूमि भले ही शासकीय दर्ज हो, लेकिन केवला बाई (पिता–चक्तु) और उनका परिवार पिछले लगभग 70 वर्षों से इस जमीन पर खेती-किसानी कर जीवन यापन करता आ रहा है। परिवार का कहना है कि उनके पूर्वजों ने इस बंजर भूमि को अपने खून-पसीने से सींचकर कृषि योग्य बनाया। यही जमीन आज उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है।
अब उसी भूमि पर ग्राम पंचायत द्वारा आंगनबाड़ी भवन निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है—वह भी बिना किसी पूर्व सूचना, बिना ग्रामसभा की अनुमति और बिना प्रभावित परिवार से कोई चर्चा किए।

सवाल यह नहीं कि आंगनबाड़ी बने या नहीं, सवाल यह है कि यहीं क्यों?
गांव में आंगनबाड़ी की जरूरत से कोई इनकार नहीं करता। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या पूरे गांव में केवल यही जमीन बची थी? और यदि यह शासकीय भूमि है, तो उसी खसरा नंबर पर बने पक्के अतिक्रमण पर प्रशासन की नजर क्यों नहीं गई?
परिवार का सीधा आरोप है कि यह पूरा मामला रसूख और सांठगांठ का परिणाम है।
रसूखदार सुरक्षित, गरीब निशाने पर
पीड़ित परिवार के अनुसार, खसरा नंबर 1784 पर गांव के प्रभावशाली व्यक्ति वीरेंद्र गुप्ता ने शासकीय भूमि पर पक्का मकान बना रखा है। वर्षों से वहां निवास करने के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। लेकिन उसी भूमि के दूसरे हिस्से पर खेती कर रहे गरीब परिवार को हटाने के लिए प्रशासन पूरी ताकत झोंक रहा है।
इतना ही नहीं, आरोप है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता गीता देवी—जो निर्माण टेंडर धारक श्रिया गुप्ता की पत्नी हैं—अपनी निजी सुविधा के लिए आंगनबाड़ी अपने निवास के पास ही बनवाना चाहती हैं। इसी उद्देश्य से सरपंच, सचिव और संबंधित लोगों की मिलीभगत से निर्माण की नींव डाल दी गई।
दिव्यांगों की जिंदगी पर भी नहीं तरस
इस परिवार की त्रासदी केवल जमीन तक सीमित नहीं है। केवला बाई के परिवार में कुल 12 सदस्य हैं, जिनमें चार पूरी तरह दिव्यांग हैं—
राहुल चौहान (18 वर्ष) – दृष्टिहीन
प्रिंसी चौहान (16 वर्ष) – दृष्टिहीन
शांति चौहान – शारीरिक रूप से विकलांग
फिरन सिंह – मानसिक रूप से अस्वस्थ
इन बच्चों और आश्रितों के लिए यही जमीन सहारा है। अगर यह छिन गई, तो न केवल छत जाएगी, बल्कि रोटी भी।
परिवार का कहना है—“हमारे पास न नौकरी है, न कोई और जमीन। अगर यही छिन गई, तो हम भूखे मर जाएंगे। रोज-रोज की मानसिक यातना से अच्छा है कि हमें सम्मान के साथ मरने की इजाजत दे दी जाए।”
इच्छा मृत्यु की मांग, सिस्टम पर करारा तमाचा
न्याय की आस में थक चुके इस परिवार ने अपनी पीड़ा राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO), छत्तीसगढ़ के राज्यपाल और मुख्यमंत्री तक पहुंचाई है। इच्छा मृत्यु की मांग किसी भी व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा आरोप होती है—यह बताती है कि सिस्टम ने उस परिवार को जीने का विकल्प ही नहीं छोड़ा।
यह मामला अब केवल जमीन विवाद नहीं रह गया है। यह सवाल है प्रशासनिक निष्पक्षता का, सामाजिक संवेदनशीलता का और उस संविधान का, जो हर नागरिक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है।
बड़ा सवाल अब भी कायम
क्या सरकार और प्रशासन इस परिवार की पुकार सुनेंगे?
क्या रसूखदारों के अतिक्रमण पर भी वही बुलडोजर चलेगा?
या फिर विकास के नाम पर एक गरीब, दिव्यांगों से भरे परिवार की जिंदगी कुचल दी जाएगी?
सरगुजा की यह कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं है—यह उस व्यवस्था का आईना है, जहां ताकतवर सुरक्षित हैं और कमजोरों के सामने ‘मौत’ आखिरी विकल्प बनती जा रही है।