फैसला और फसाद — शेख हसीना को ‘क्राइम्स अगेंस्ट ह्यूमैनिटी’ के आरोपों में फाँसी की सज़ा; ढाका ने दिल्ली से प्रत्यर्पण की माँग की

फ्रीलांस एडिटर जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम लखनऊ/ढाका, — बांग्लादेश की विशेष न्यायव्यवस्था ने सोमवार को देश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को क्राइम्स अगेंस्ट ह्यूमैनिटी के दोषी करार देते हुए इन-एब्सेंटिया (उपस्थिति न होने पर) तीन मामलों में मौत की सज़ा सुनाई — और दो मामलों में आजीवन कारावास। इस निर्णय का कारण अदालत ने 2024 में हुए व्यापक छात्र-आंदोलन के दौरान हुई हिंसा और हत्याओं को बताया।
प्रमुख बिंदु — एक नजर
विशेष ट्रिब्यूनल ने हसीना पर आरोप लगाया कि उन्होंने छात्र-आंदोलनों पर कड़ा दमन कराकर जानवरों-सँभव् ह्त्या करवाई और हिंसा भड़काने के आदेश दिए; तीन आरोपों में फाँसी और दो में आजीवन जेल की सज़ा सुनाई गई।
हसीना वर्तमान में भारत में हैं; ढाका ने भारत से उन्हें प्रत्यर्पित करने की औपचारिक माँग की है — जिसे दिल्ली ने संवेदनशीलता के साथ संभालने की बात कही है।
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ मिश्रित रहीं — कुछ मानवाधिकार समूहों ने कड़ी निन्दा की, जबकि यूएन ने मृत्यु-दंड के उपयोग पर अपनी ‘क्षोभ’ या ‘afternoon regret’ जैसा कड़ा बयान दिया।
घटना-क्रम और कानूनी परतें
2024 में शुरू हुए छात्र-नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शनों के बाद बचे-खुचे राजनीतिक तनाव ने अगले साल हसीना के शासन को हिलाकर रख दिया। ट्रिब्यूनल ने कहा कि उस दमन में सुरक्षा बलों के उपयोग का आदेश, हवाई हमले (हेलीकॉप्टर/ड्रोन) और टार्गेटेड हत्याएँ शामिल थीं — और इन्हीं घटनाओं के लिए हसीना तथा कुछ वरिष्ठ सहयोगियों को जिम्मेदार ठहराया गया।
कानूनी तौर पर यह फैसला इन-एब्सेंटिया सुनाया गया है, जिसका अर्थ है कि अभियुक्त व्यक्तिगत रूप से गुरेज़ हैं — और ऐसे मामलों में अपील-प्रक्रिया, सुप्रीम कोर्ट में चुनौती और भारतीय प्रत्यर्पण कानून के माध्यम से प्रतिरक्षा (legal shield) जैसी जटिलताएँ पैदा होती हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रत्यर्पण के लिए द्विपक्षीय और घरेलू कानूनी प्रावधानों के अलावा राजनीतिक निर्णय भी अहम भूमिका निभाते हैं।
हसीना-शिविर और विपक्षी रुख
शेख हसीना ने फ़ैसले को खारिज करते हुए ट्रिब्यूनल पर “रिग्ड” (ठीक नहीं) होने का आरोप लगाया है और कहा है कि यह निर्णय राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित है। उनकी पार्टी, अवामी लीग, ने इसे लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ़ बताया और बड़े पैमाने पर विरोध की घोषणा की है।
दूसरी तरफ़, अंतरिम सरकार के नेतृत्व ने इसे ‘न्याय’ की दिशा का कदम बताया और तर्क दिया कि किसी भी नेता को क़ानून के दायरे से बाहर नहीं माना जा सकता। हालाँकि, कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और मानवाधिकार संगठनों ने ट्रिब्यूनल की निष्पक्षता और चुनौतियों पर सवाल उठाए हैं।
अंतरराष्ट्रीय असर और भारत-बांग्लादेश रिश्ते
ढाका ने आधिकारिक रूप से भारत से हसीना के प्रत्यर्पण की माँग कर दी है। इस पर भारत ने फिलहाल कूटनीतिक तौर पर नाज़ुक रवैया अपनाया — दोनों देशों के बीच स्थिरता व सुरक्षा के मद्देनजर दिल्ली ने “रूचि व निर्माणात्मक संवाद” का जिक्र किया है, पर तुरंत प्रत्यर्पण की गारंटी नहीं दी। विशेषज्ञ कहते हैं कि प्रत्यर्पण पर निर्णय, कानूनी मानदंडों के साथ-साथ भारत की विदेश नीति और द्विपक्षीय हितों का संयोजन होगा।
संभावित दुष्प्रभाव और घरेलू स्थिति
ढाका में सुरक्षा बढ़ा दी गई है; संभावित हंगामा, विरोध-प्रदर्शनों और जुलूसों की आशंका से प्रशासन सतर्क है।
राजनीतिक अस्थिरता का असर आर्थिक गतिविधियों और निवेश-आश्वास पर भी पड़ सकता है — खासकर तब जब विश्वसनीयता और न्यायिक स्वतंत्रता पर सवाल उठें।
क्या यह सिर्फ़ ‘कानूनी फैसला’ है?
यह फैसला सिर्फ़ एक न्यायिक आदेश नहीं रह गया; यह बंगलादेश की राजनीतिक विरासत, शक्ति संतुलन और लोकतन्त्र के भविष्य से जुड़ा एक निर्णायक मोड़ बन चुका है। जब किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूर्व प्रधानमंत्रियों पर यह तरह के आरोप लगते हैं और उन्हें सर्वोच्च सज़ा दी जाती है, तो दो तरह के असर होते हैं — एक, न्यायिक प्रणाली पर भरोसे की चुनौती; और दो, राजनीतिक ध्रुवीकरण में बढ़ोतरी। यदि ट्रिब्यूनल की प्रक्रिया पारदर्शी और अपीलीय चैनलों के अनुकूल साबित होती है तो यह निर्णय लंबे समय में न्याय-विधि का सशक्तिकरण दिखा सकता है; पर यदि फैक्ट-फाइंडिंग, सबूतों की पारदर्शिता और कानूनी प्रकिया पर गंभीर सवाल बने रहें, तो इसे ‘राजनीतिक बदला’ के रूप में पढ़ा जाएगा।
संपादकीय नोट (जरूरी चेतावनी)
यह रिपोर्ट सार्वजनिक, प्रतिष्ठित समाचार स्रोतों पर प्रकाशित खबरों और आधिकारिक बयानों पर आधारित है। उच्च-स्तरीय राजनीतिक मामलों और प्रत्यर्पण जैसे संवेदनशील कदमों में समय के साथ नई अपडेट आ सकती हैं।