ज़मीन गई, भविष्य अधर में: कोयला खदानों के विस्तार में उलझा स्थानीय युवाओं के रोजगार का सच

फ्रीलांस एडिटर अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम रायगढ़।
कोयला खदानों के लिए गांवों की जमीन जब अधिग्रहित होती है, तो मामला केवल खेत-खलिहान छिनने तक सीमित नहीं रहता। उस जमीन के साथ प्रभावित परिवारों की आजीविका, उनकी सामाजिक जड़ें और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी डगमगा जाता है। ऐसे में पुनर्वास की सबसे अहम कड़ी—स्थायी रोजगार—आज भी कई परिवारों के लिए सिर्फ कागज़ों में सिमट कर रह गई है।
लैलूंगा विधानसभा क्षेत्र में संचालित कोयला खदानों के लिए हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहित की जा चुकी है और यह प्रक्रिया अब भी जारी है। बिजली और स्टील उद्योग की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए कोयला आवश्यक है, इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि जिन गांवों ने विकास की इस कीमत को अपनी जमीन देकर चुकाया, उन्हें बदले में वह सुरक्षा और अवसर क्यों नहीं मिले, जिनका वादा किया गया था?
विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, कोयला कंपनियां स्थानीय युवाओं को रोजगार देने का दावा तो कर रही हैं, लेकिन यह आंकड़ा वार्षिक औसत के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यानी एक वर्ष में कुल कितने युवाओं को काम मिला, यह तो बताया गया, पर यह स्पष्ट नहीं किया गया कि उन्हें कितने दिन या कितने महीने का रोजगार दिया गया। यही अस्पष्टता पूरे दावे को सवालों के घेरे में खड़ा करती है।
उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी ने 14 गांवों की जमीन अधिग्रहित की, लेकिन रोजगार केवल 21 लोगों को मिला। वहीं छत्तीसगढ़ स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी ने सालाना औसतन 217 युवाओं को काम देने की जानकारी दी, जबकि प्रभावित परिवारों की संख्या लगभग 1000 बताई जाती है। इसी तरह जेपीएल की गारे पेलमा 4/1 खदान में 181 युवाओं को रोजगार दिया गया, लेकिन यह संख्या भी स्थायी नौकरी नहीं, बल्कि कुछ महीनों के अस्थायी काम तक सीमित रही।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि “वार्षिक औसत रोजगार” का अर्थ स्थायी नौकरी नहीं है। किसी को एक महीने तो किसी को तीन या चार महीने का काम मिला। यदि इस व्यवस्था का ऑडिट किया जाए, तो खदानों में कुछ स्थानीय चेहरे जरूर काम करते दिख जाएंगे, लेकिन सभी प्रभावित परिवारों को रोजगार मिलने का दावा धरातल पर कमजोर नजर आता है।
रोजगार को लेकर कंपनियों का एक तर्क यह भी है कि खदानों में तकनीकी कार्य होता है, जिसके लिए विशेष योग्यता चाहिए। यह दलील निजी कंपनियों की ओर से अक्सर दी जाती है। लेकिन यही तर्क तब सवालों में आ जाता है, जब एसईसीएल प्रति दो एकड़ भूमि अधिग्रहण पर एक नौकरी देने की नीति का पालन करती है। अलग-अलग कंपनियों की अलग-अलग पुनर्वास नीतियां, प्रभावितों के बीच असमानता और असंतोष को जन्म दे रही हैं।
असल सवाल यह है कि जमीन गंवाने के बाद जिन परिवारों के पास खेती या अन्य आय का कोई साधन नहीं बचता, उनके लिए अल्पकालिक और अस्थायी रोजगार क्या पर्याप्त है? पुनर्वास का उद्देश्य केवल आंकड़े पूरे करना नहीं, बल्कि प्रभावित परिवारों को सम्मानजनक और स्थायी जीवन देना होना चाहिए।
कोयला खदानों के विस्तार और औद्योगिक विकास के बीच स्थानीय युवाओं के रोजगार का यह अधूरा सच अब गंभीर और पारदर्शी समीक्षा की मांग करता है, ताकि विकास की कीमत सिर्फ गांव और गरीब ही न चुकाएं।