ग्रामीणों की सड़क की मांग ने दिखाया रास्ता, लेकिन पेड़ काटने की सजा ने उठाए सवाल

एडिटर जर्नलिस्ट अमरदीप चौहान/अमरखबर.कॉम महासमुंद/बलौदा बाजार: छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार जिले के कसडोल विकासखंड में बसे आदिवासी बहुल गांव छतालडबरा के ग्रामीणों ने अपनी एकजुटता और हिम्मत से यह साबित कर दिया कि अगर इरादे मजबूत हों तो रास्ते बन ही जाते हैं। उनकी मांग थी—अमलोर से सिरपुर तक एक पक्की सड़क, जो उनके जीवन को आसान बनाए। लेकिन सरकारी लेटलतीफी और उदासीनता ने उन्हें मजबूर कर दिया कि वे खुद ही जंगल में रास्ता साफ करें। इस नेक इरादे की कीमत हालांकि 36 ग्रामीणों को जेल जाकर चुकानी पड़ी, क्योंकि उन्होंने बिना अनुमति 89 मिश्रित प्रजाति, खैर, तेन्दु और 3 सागौन के पेड़ काट दिए। यह मामला विकास की जरूरत और पर्यावरण संरक्षण के बीच एक नाजुक संतुलन को उजागर करता है।
सड़क की मांग और ग्रामीणों का दर्द
छतालडबरा के करीब सौ परिवार लंबे समय से अमलोर से सिरपुर तक सड़क की मांग कर रहे थे। यह सड़क न केवल उनकी रोजमर्रा की जिंदगी को आसान बनाती, बल्कि जंगली जानवरों के खतरे से भी बचाव करती। ग्रामीणों ने अपनी बात को कई मंचों पर उठाया, यहाँ तक कि सुशासन तिहार जैसे सरकारी आयोजनों में भी अपनी आवाज बुलंद की। वन विकास निगम ने भी इस सड़क के लिए एक करोड़ रुपये का प्रस्ताव सरकार को भेजा था, लेकिन फाइलें दफ्तरों में धूल खाती रहीं। नतीजा? ग्रामीणों का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने खुद ही रास्ता बनाने की ठान ली।
पेड़ काटने का फैसला और कानूनी कार्रवाई
ग्रामीणों ने वन मार्ग पर बाधा बन रहे 89 मिश्रित प्रजाति के खैर, तेन्दु और 3 सागौन के पेड़ काट डाले। जैसे ही यह खबर वन विभाग तक पहुंची, वन अमला हरकत में आया। वन परिक्षेत्र अधिकारी के अनुसार, यह कार्रवाई भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 26(1)(क) और धारा 26(1)(च) के तहत अवैध थी। इन धाराओं के तहत बिना अनुमति वृक्ष काटना गैर-कानूनी है और इसके लिए सजा का प्रावधान है। परिणामस्वरूप, 36 ग्रामीणों को गिरफ्तार कर लिया गया और न्यायालय ने उन्हें जेल भेज दिया।
पेड़ काटने के नियम और कानूनी प्रावधान
भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 26(1)(क) के तहत, वन क्षेत्र में बिना अनुमति पेड़ काटना या वन संपदा को नुकसान पहुंचाना दंडनीय अपराध है। इसमें सात साल तक की कैद या जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं। धारा 26(1)(च) वन भूमि पर अतिक्रमण या अनधिकृत उपयोग को प्रतिबंधित करती है। इसके अलावा, छत्तीसगढ़ में वन संरक्षण अधिनियम 1980 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत भी पेड़ काटने के लिए वन विभाग से पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है। खैर, तेन्दु और सागौन जैसे मूल्यवान वृक्षों को काटने के लिए विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है, क्योंकि ये संरक्षित प्रजाति के अंतर्गत आते हैं।
ग्रामीणों का पक्ष: विकास की अनसुनी पुकार
जनपद सदस्य प्रतिनिधि लक्ष्मी नारायण ठाकुर ने ग्रामीणों का पक्ष लेते हुए कहा कि उनकी मांग जायज थी। छतालडबरा से अमलोर-सिरपुर का कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है, और जंगल के बीच से गुजरने वाले इस मार्ग पर जंगली जानवरों का खतरा हमेशा बना रहता है। ग्रामीणों ने केवल अपनी सुरक्षा और सुविधा के लिए पेड़ काटे थे। ठाकुर ने सरकार से मांग की कि ग्रामीणों की समस्या को समझते हुए सड़क निर्माण को प्राथमिकता दी जाए।
सकारात्मक नजरिया: एकजुटता और उम्मीद की कहानी
यह मामला भले ही कानूनी उलझनों में फंस गया हो, लेकिन यह ग्रामीणों की एकजुटता और अपने हक के लिए लड़ने की भावना को दर्शाता है। उनकी यह पहल सरकार को यह सोचने पर मजबूर करती है कि विकास की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में देरी क्यों हो रही है। यह घटना एक मौका है—सरकार के लिए, कि वह ग्रामीणों की मांग को गंभीरता से ले और सड़क निर्माण जैसे प्रस्तावों को जल्द से जल्द अमल में लाए। साथ ही, यह पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन बनाने की जरूरत को भी रेखांकित करता है।
एसीबी और वन विभाग की कार्रवाई ने भले ही ग्रामीणों को जेल काटने की सजा दी हो, लेकिन यह घटना एक बड़ा सवाल छोड़ गई है—क्या विकास की कीमत हमेशा आम आदमी को ही चुकानी होगी? सरकार को चाहिए कि वह छतालडबरा जैसे गांवों की मूलभूत जरूरतों को प्राथमिकता दे और ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए समयबद्ध योजनाएं बनाए। वहीं, ग्रामीणों को भी यह समझना होगा कि पर्यावरण संरक्षण उतना ही जरूरी है, जितना विकास। शायद यह समय है कि सरकार और जनता मिलकर एक ऐसी राह बनाएं, जो विकास और पर्यावरण दोनों को साथ लेकर चले।